योग दिवस विशेष ; अमृतम पत्रिका

व्याधि और बाधा, घाटी और घाटा ये मानव जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग है। इनकी विशेषता यह है कि ये बिना बुलाये ही आ धमकते है। ये सब बेशर्म प्रवृत्ति के हैं। व्याधि, बाधा घाटी और घाटा ये सब बन्धन स्वरूप हैं ये उन्नत्ति में रुकावट का कार्य करते हैं। ये सब न हों तो व्यक्ति अंहकारी हो जायेगा। लेकिन इन सबसे बचने के तरीके भी हैं। शास्त्रों में सत्य और सच्ची बातों का उल्लेख है इनको अनुसरण करने से इन पर विजय पायी जा सकती है।

व्याधि विवेक हीन बना देती है। यदि व्याधि की आंधी लम्बे समय तक चले, तो युवा अवस्था में ही व्यक्ति बाबा (अधेड़) दिखने लगता है। अतः व्याधि कोई भी कैसी भी हो यह बुराई, बर्बादी और बुढ़ापे का प्रतीक है। व्याधि शब्द की व्याख्या - आयुर्वेद के हजारों प्राचीन ग्रन्थों में व्याधि या रोग शब्द, व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तन व मन में होने वाली किसी प्रकार की वेदना का जब अनुभव हो उसे व्याधि कहते हैं।

व्याधि के कारण तन- मन और धन इन सभी की हानि होती है। आयुर्वेद के अनुसंधान कर्ता महर्षियों का कथन है कि-

"विविद्यमाधि दुःखमादधाति शरीरे मनसि चेति-व्याधि"

इसी अभिप्राय से आयुर्वेद में क्षुधा, पिपासा तथा जरा अर्थात भूख प्यास, ज्वर कमजोरी आदि को जो स्वाभाविक हैं एवं प्राणियों को कुछ न कुछ कष्टदायक हैं, इन्हें व्याधि के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। आचार्य सुश्रुत ने इसी भाव को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है
अस्मिन् शास्त्रे पंचमहाभूत शरीरसमभवायः पुरूष इत्युच्यते । तद दुःखसंयोगा उच्यन्ते ।

वेद की शाखा आयुर्वेद भाष्यों के अनुसार प्राणीका निर्माण पंचमहाभूतों अर्थात आकाश, धरती, वायु, अग्नि और जल से मिल कर हुआ है, व्याधि की स्थिति में इन तत्वों के बीच असंतुलन की अवस्था आ जाती है

पतंजलि योग दर्शन में भी दुःख या व्याधि की। परिभाषा का विस्तार करते हुए कहा गया है कि- “तत्र प्रतिकूल वेदनीयं दुःखम्।" अर्थात मन व शरीर के प्रतिकूल किसी भी अवस्था में दुःख पैदा होता है और दुखःकारक अवस्था को ही व्याधि कहते हैं- इसीलिए काम, क्रोध, शोक, चिन्ता आदि का समावेश मानसिक रोगों के रूप में किया गया है। तन को तरुण बनाये रखने का प्रथम सूत्र है वात-पित्त-कफ का सम होना। क्योकिं शरीर की सम्पूर्ण क्रियायों का नियंत्रण व धारण करने वाले तीन दोष अर्थात वात, पित्त और कफ है। ये तीनों दोष सम अवस्था में रहते हैं तब शरीर स्वस्थ रहता है। (दोषसाम्यमरोगता)

यदि वात-पित्त और कफ इन तीनों में विषमता आ जाये तो शरीर अस्वस्थ हो जाता है तथा रोग की उत्पत्ति हो जाती है। इसलिये आयुर्वेद का सिद्धांत हैकि रोगस्तु दोषवैषम्यम् । आयुर्वेद की अधिकांश औषधियाँ, जड़ी बूटियाँ एवं अमृतम् की सम्पूर्ण दवाएं त्रिदोष नाशक है।

अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी इन पंचतत्वों का आत्मा के साथ संयोग होने पर ही होता है। जब आत्मा में दुःखों का संयोग होता है, तब उसे व्याधि कहते हैं। रोगों की उत्पत्ति के तीन कारण बतायें हैं

  1. मिथ्या- अर्थात झूठ-मूठ, धोखे या गलत तरीके से अशुद्धता के साथ जीवन यापन से वात विकार उत्पन्न होते है।
  2. आहार विहार- गलत खान पान असमय भोजन तथा भोजन का अशुद्धता के कारण कफ दोष होता है।
  3. 3 प्रज्ञापराध- विवेकहीन अधार्मिक विचारधारा, बिना नियम संयम, आसन तथा आध्यतम के प्रति अरूचि होने से पित्त दोष होते हैं।

जिस प्रकार तन्तुओं के बिना बस्त्र का निर्माण असंभव है उसी प्रकार तीनों त्रिदोष की विषमता के बिना व्याधि की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अर्थात वात-पत्ति और कफ इन तीनों के विषम होने से ही व्याधियां उत्पन्न होती। हैं। शरीर को विष (रोग) रहित एवं विषमता से मुक्ति हेतु अमृतम् की असरकारक आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन करें।

AMRUTAM PATRIKA ARCHIVES ; EDITORIAL; MAY 2011

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