वन है, तो तन-मन-धन और जीवन है

"वन का स्वभाव है सहज होना, विश्वासी होना, कालिदास का शब्द उधार लें तो सुगन्ध होना, एक दूसरे की गन्ध पहचानने और पहचान कर उससे भरने का मन बनाना। हमने वन काटे, वन शायद देर-सबेर उग जाये, पर हमने उस सहज स्वभाव की विनाश किया वह स्वभाव कहाँ से फिर मिलेगा"

 

स्व. जैनेन्द्र जी की कहानी 'तत्सत्', जिसमें वन के वृक्षों का संवाद था और उस संवाद की परिणति थी तत्सत् में, वही सब सत्ता है', वह सत्ता हम सब में है और हम ही हद के बाहर भी हैं। व्यपारिक प्रवास के कारण वनों में घूमने के अवसर मुझे बचपन से मिलने लगे। तब गाँवों के आसपास बाग भी घने होते थे, अनेक बागों के नाम 'अंधियारी बाग' फूलन बाग, केशरबाग और चार बाग वोदाबाग, फलिहारी बाग हुआ करते थे। आज भी मैसूर कालीकट आदि शहरों के गार्डन (बाग) दर्शनीय है। म प्र., छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आसाम और हिमाचल प्रदेशों के अनेकों बागों में अधिक वृक्षों के कारण दिन में भी अंधियारा बना रहता है। गाँव से दो कोस पर जंगल शुरू होता था । जंगल में अधिकतर साल (साखू) और सागौन के बड़े-बड़े, ऊँचे-ऊँचे पेड़ थे उनके नीचे अनेक प्रकार की वनस्पतियों से जमीन ढंकी रहती थी। पैर उनमें धँस- धंस जाता था। बीच-बीच में ऊँची बिमौटियाँ रहतीं।

जंगल से बिमौटी की माटी शिव का पार्थिव शिवलिंग बनाने के लिए मँगायी जाती। जंगल से पलाश के पत्ते मँगाये जाते। उनका उपयोग उत्सवों के भोजों में पत्तल के रूप में होता। जंगल था तो गायों, भैसों की संख्या अपार थी, गायें, भैसें सुबह जाती, शाम को गोधुलि बेला में लौट आती, जंगली घास और वनस्पति खाने से उनका दूध बड़ा स्वादिष्ट होता था। जंगल के लकड़हारे सूखी लकड़ियाँ, सूखे गोबर की पिंडिया बटोर कर लाते, गाँव में इंधन की कोई समस्या न होती। हम बच्चों के लिए वन भय का स्थान बना दिया गया था। वन में बाघ रहते हैं, अजगर रहते हैं, खा जाते हैं, वन में भूखे भेड़िये रहते हैं, जंगल में बिना अभिभावक के साथ जाना वर्जित था। इसीलिए जंगल बड़ा मोहक था। जब किसी बूढ़े के साथ जंगल जाना होता भी था, तो इस जंगल में बैलगाड़ी की लीक थी, उसी पर चलते हुए जाना होता।

कानों में जाने कितने स्वर आते, मधुमख्खियों के, चिड़ियों के, जानवरों के और दूर से चरने वाले पशुओं की घंटियाँ के ओर सबसे अधिक सन्नाटे के । इस स्वर संचार से अजीब सिहरन होती थी। इसके बाद आसपास की वनस्पतियों के फूलों की अनेक प्रकार की सुरभि का सम्मोहन जैसे प्राणों पर छा जाता था। प्रकृति से यह प्रेम सब मेरे भीतर संस्कार बन गया है। विन्ध्य क्षेत्र रीवा, सतना, सीधी, शहडोल जिले के सुक्ष्म ग्रामीण क्षेत्रों में मेरा अनेकों बार आना-जाना रहा। छत्तीसगढ़ के गहन घने जंगल खासकर नारायणपुर, दन्तेवाड़ा, कांकेर, पंखांजुर भोपाल पट्टनम् के आसपास के गहन वनों से निकलने के कई अवसर मिले और भिन्न-भिन्न ऋतुओं में भिन्न-भिन्न केन्द्र बनते देखे । फूलों की महक के, मधुमक्खियों की गुनगुनाहट के। कभी सागौन पर बहार आती, वर्षा में माखनी रंग के फूलों के लम्बे-लम्बे गुच्छे लगते और घनघोर वर्षा की चुनौती देते हुए हँसते रहते ।अनेक प्रजातियाँ की अलग-अलग ऋतुएँ हैं। पूरा ऋतुचक्र जंगल में इसीलिए एक प्रजाति की बहार से ही भरा रहता हैं। तरह-तरह की मिट्टी ललहा, काली, भूरी और उसको बाँधे हुए अनगिनत पेड़। 

 

कितना कसके अपनी मिट्टी ये पेड़-पहाड़ों को पकड़े रहते हैं, यह पेड़ कटने पर ही पता चलता है। जब जरा-सी बारिश से मिट्टी खिसकनी शुरू हो जाती है और नदियाँ उथली होती जाती हैं, पहाड़ बोझ होते जाते हैं। इन हिमालयी वनराजियों के उजड़ने का प्रभाव औषधियों की पैदावार पर पड़ रहा है, जलवायु पर पड़ रहा है, पर यह व्यथा-कथा कहने की नहीं। पैसा सब लीलता जा रहा है और नया सौन्दर्यविधान बड़े पैमाने पर पैदा करता जा रहा है जो प्रशासन के नाम से जाना जाता है और अब गाँव की चमड़ी उससे मंडित होकर अपनी सहज स्निग्धता न्यौछावर करने के लिए आतुर है। वन की छाया का भरोसा रहता था, तो मनुष्य मनुष्य के बीच प्रकृति का अन्तराल या ठीक-ठीक कहें तरल सेतु बहता रहता था। वह अन्तराल, यह अवकाश छिन गया है, इतनी सारी ऐश की चीजें उनकी जगह पर आ गयी हैं। पर इनमें किसी में भी अपना स्पन्दन नहीं हैं।

amrutam nature

प्रकृति को मरोड़कर निचोड़कर ये सुविधाएँ बनी हैं। ये सामने रहती हैं, तो मनुष्य इन्ही का हो जाता है। कोई पास आता है, तो सुविधाओं वाला आदमी अपनी सुविधायें आगन्तुक को दिखाता है, जैसे आदमी सुविधा हो गया हो। वन के स्वभाव में है कि वन का आदमी सुविधाओं की बात नहीं करता, वह अपनी बात करता है, उससे भी ज्यादा दूसरे की बात सुनना चाहता है, मन भर सुनना चाहता है। वन का स्वभाव ही है सुनना। संस्कृत में सेवा के लिए शब्द है शुश्रुषा जिसका अर्थ है सुनने की इच्छा, सुनने का मन हो तभी सेवा भाव आता है। भवभूति ने वन के सुख की बात करते हुए कहा, यहाँ फल-फूल पर हम जीते हैं पर आप शहरी लोगों की तरह पराधीन नहीं है।

वन पेड़ों के योग नहीं हैं, वन पेड़ की उपज मात्र नहीं है, वन मनुष्य के लिए प्राणों का अक्षय कोष है। वन है, तो हमारी सुरक्षा है, हमारी जीवन्तता है और हमारे भीतर हम का भाव है। वन है तो 'हम' है । वन संपूर्ण सत्ता का स्वभाव है।

RELATED ARTICLES

Talk to an Ayurvedic Expert!

Imbalances are unique to each person and require customised treatment plans to curb the issue from the root cause fully. We recommend consulting our Ayurveda Doctors at Amrutam.Global who take a collaborative approach to work on your health and wellness with specialised treatment options. Book your consultation at amrutam.global today.

Learn all about Ayurvedic Lifestyle