पित्त की वृद्धि 72 से ज्यादा रोगों का कारण है- जरूर जानिए पित्त के 5
भेद, 64 लक्षण, 13 प्रकृति और दस उपाय ..
•चिड़चिड़ाने वाला क्रोधित स्वभाव,
•बात-बात पर गुस्सा, •निगेटिव सोच,
•धैर्य की कमी, •जल्दबाज़ी और
•देह में दुर्गंध, ये सारी परेशानियां
पित्त प्रकृति वाले पुरूष-स्त्री की
बहुत हद तक मेल खाती हैं।
पित्त bile या gall गहरे हरे-पीले रंग का द्रव है, जो पाचन में मदद करता है।
अमृतम पत्रिका के इस लेख/ब्लॉग में हम आपको पित्त प्रकृति के गुण, लक्षण और इसे संतुलित करने के उपायों के बारे में विस्तार से बता रहे हैं-
【१】पित्त दोष क्या है?
【२】पित्त का स्वभाव
【३】पित्त के लक्षण,
【४】पित्त के प्रकार, भेद-गुण।
【५】पित्त का स्वभाव,
【६】पित्त प्रकृति की विशेषता,
【७】पित्त के पित्त बढ़ने के कारण,
【८】पित्त की कमी के लक्षण-उपचार,
【९】पित्त संतुलन के उपाय,
【१०】पित्तदोष की दवा/चिकित्सा
■ पित्त क्या होता है....
कभी-कभी पाचनतंत्र की कमजोरी के कारण भोजन न पचने से सुबह के समय अथवा किसी रोग की अवस्था में वमन या उल्टी करते समय जो हरे व पीले रंग का तरल पदार्थ मुँह के रास्ते बाहर आता है, उसे हम पित्त कहते हैं।
पित्त शब्द संस्कृत के 'तप' शब्द से बना है, जिसका अर्थ है-शरीर में जो तत्व गर्मी उत्पन्न करता है, वही पित्त है। यह शरीर में उत्पन्न होने वाले प्रकिण्व (★एंजाइम) और कार्बनिक रस (★हार्मोन) को नियंत्रित करता है।
★ एंजाइम के कार्य :-
भोजन को पचाने, मांसपेशियों के बनने और शरीर में विषाक्त पदार्थ खत्म करने के साथ शरीर के हजारों कामों को करने के लिए आवश्यक होते हैं।
★ हार्मोन्स के कार्य :-
हार्मोन शरीर के लिए महत्वपूर्ण रस हैं। शरीर के बढ़ने, उपापचय (मेटाबोलिज्म), यौन या सम्भोग गतिविधियों, प्रजनन और सेक्स मूड (mood) आदि क्रियाओं में हार्मोन विशेष भूमिका अदा करते हैं।
अंग्रेजी भाषा में पित्त को फायर बताया है।
पित्त का पॉवर बताने वाले 9 सन्दर्भ ग्रन्थ-के नाम...
{१} धन्वन्तरि कृत आयुर्वेदिक निधण्टु
{२} आयुर्विज्ञान ग्रंथमाला
{३} आयुर्वेद द्रव्यगुण विज्ञान
{४} आयुर्वेदिक काय चिकित्सा
{५} आयुर्वेद सारः संग्रह
{६} भावप्रकाश निघण्टु
{७} सुश्रुत सहिंता
{८} चरक सहिंता एवं
{९} वाग्भट्ट आदि ये सब ग्रन्थ
5000 वर्षों से भी प्राचीन हैं और आयुर्वेद की अमूल्य धरोहर है।
आयुर्वेद के आचार्य चरक के अनुसार-"दोष धातु मल मूलं हि शरीरम्" भावार्थ- वात, पित्त, कफ अंसतुलित (unbalanced) होने पर त्रिदोष कहलाते हैं। वात-पित्त-कफ, तीनों में से कोई भी एक विषम होने पर देह की धातु और मल को दूषित कर देते हैं। त्रिदोष रहित मनुष्य सदैव सुखी-स्वस्थ्य तनावमुक्त और प्रसन्नपूर्वक रहता है।
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अमृतम पत्रिका
■ पित्त का स्वरूप....
तस्मात् तेजोमयं पित्तं पित्तोष्मा य: स पक्तिमान। (भोज) अर्थात-पित्त देह में अग्निभाव का घोतक है। पित्त अग्नि के सामान गुण कर्म वाला होता है। तन को जीवित बनाये रखने में पित्त ही सहायक है। अतः बाह्रलोक में जो अग्नि का महत्व है, वही शरीर में पित्त का है।
संस्कृत के मन्त्र मुताबिक- सस्नेह मुष्णम् तीक्षणं च द्रव्यमग्लं सरं कटु!! (चरक) पित्त भी पंचमहाभूतों में से एक अग्नि का प्रतिनिधि द्रव्य है।
■ शरीर में पित्त रहने का स्थान...
अग्नाशय यानि पेनक्रियाज (Pancreas), यकृत/लिवर (Liver) प्लीहा/तिल्ली (Spleen) हृदय, दोनों नेत्र, सम्पूर्ण देह और त्वचा/स्किन में पित्त निवास करता है।
■ 5 प्रकार के पित्त...
अमाशय (Stomach) में पाचक पित्त, यकृत तथा तिल्ली में रंजक पित्त, ह्रदय में साधक पित्त, सारे शरीर में भ्राजक पित्त और दोनों आंखों में आलोचक पित्त रहता है। यदि दृष्टि आलोचक अधिक है, तो ऐसे लोग पित्त प्रकोप से पीड़ित रहते हैं। यह भी एक पहचान है। इसलिए किसी ने पित्त दोष का एक बेहतरीन इलाज कविता द्वारा बताया है- नजरों को बदले, तो नजारे बदल जाते हैं। सोच को बदलते ही सितारे बदल जाते हैं।
■ शरीर में पित्त के कार्य....
!!"सत्वरजोबहुलोऽग्न"!!
पित्त के दो कार्य या कर्म हैं- पहला प्राकृत कर्म यानि नेचुरल और दूसरा है वैकृत (Deformed)कर्म! जब पित्त प्रकृतावस्था अर्थात नेचुरल स्थिति में रहता है, तब पित्त के द्वारा सम्पन्न होने वाला प्रत्येक कार्य शरीर के लिए उपयोगी ओर स्वस्थ्य रखने वाला होता है।
लेकिन वही नेचुरल/प्राकृत पित्त, जब विकृत यानि असन्तुलित होकर दूषित हो जाता है, तो वह पित्त शरीर को विकारग्रस्त बनाकर बीमारियों का अंबार लगा देता है तथा देह में पित्त जनित रोग उत्पन्न होने लगते हैं।
■ पित्तदोष असंतुलन के लक्षण....
पित्त पीड़ित स्त्री-पुरुषों को ये अवरोध उत्पन्न होने लगते हैं। जैसे-
1~मल-मूत्र साफ और खुलकर नहीं आता।
2~शुक्र यानि वीर्य पतला होने लगता है।
3~अग्निस्तम्भन, यानि फुर्तीलापन का नाश। 4~बार-बार खट्टी डकारें आती हैं।
5~भूख-प्यास, निद्रा समय पर नहीं लगती।
6~गले में खराश बनी रहना,
7~खाना न खाने पर जी मितली,
8~स्तनों या लिंग को छूने पर दर्द होना।
9~हार्मोनल असंतुलन
10~माहवारी के दौरान दर्द होना।
11~माहवारी के समय ज्यादा खून आना।
12~धैर्य की कमी, चिड़चिड़ापन, नाराज़गी,
13~ईर्ष्या, जलन-कुढ़न, द्वेष-दुर्भावना और
अस्थिरता की भावना रहती है।
14~युवावस्था में बाल सफेद होना।
15~नेत्र लाल या पीेले होना।
16~गर्म पेशाब आना, जलन होना।
17~पेशाब का रंग लाल या पीला होना।
18~अचानक कब्ज या दस्त लगना
19~नकसीर फूटना, नाक से रक्त बहना।
20~नाखून और देह पीली पड़ना।
21~ठण्डी चीजें अच्छी लगना।
22~कभी भी शरीर में फोड़े-फुंसी,
23~त्वचारोग, स्किन डिसीज होना।
24~बेचैनी, घबराहट, चिन्ता, डर, भय।
25~अवसाद (डिप्रेशन) होना इत्यादि
■ पित्त क्षय के लक्षण- असंतुलन
26~ जिस तरह वायु घटती-बढ़ती रहती है, उसी प्रकार पित्त जब कम होता है, तब देह की अग्नि मंद, गर्मी कम तथा शरीर की रौनक समाप्त होने लगती है।
27~ काया का उचित विकास नहीं हो पाता। ~ जवानी के दिनों में बुढापे के लक्षण प्रतीत होते हैं।
■ पित्त-वृद्धि के लक्षण...
28~ तन में पित्त की अधिकता होने से शरीर पीला पड़ने लगता है।
29~ बार-बार पीलिया की समस्या होने लगती है।
30~ नया खून बनना कम हो जाता है।
31~ सदैव सन्ताप, दुःख, आत्मग्लानि का भाव उत्पन्न बना रहता है।
32~ किसी काम में मन नहीं लगता।
33~ जीवन के प्रति उत्साह, उमंग क्षीण होने लगता है।
34~ जीने की चाह नहीं रहती।
35~ नींद कम आती है,
36~ सुस्ती, बेहोशी छाई रहती है।
37~ देह बलहीन तथा कामेन्द्रियाँ शिथिल होकर, नपुंसकता आने लगती है।
38~ सहवास या सेक्स की इच्छा नहीं रहती।
39~ पेशाब पीला उतरता है तथा आंखे पीली हो जाती हैं।
■ पित्त-प्रकोप के लक्षण...
40~ देह में जब लम्बे समय तक गर्माहट, जलन का अनुभव करें,
41~ ऐसा महसूस हो जैसे धकधक आग जल रही हो, धुंआ सा निकलता मालूम होवे।
42~ बहुत ज्यादा खट्टी डकारें आयें।
43~ अन्तर्दाह हो, त्वचा या चमड़ा जलने लगे से अनुभव हो।
44~ लाल-लाल चकत्ते, फोड़े-फुंसी, मुहांसे होने लगे।
45~ कांख यानि बगल में कखलाई हो।
46~ मस्तिष्क में गर्मी, बेचैनी बहुत लगे।
47~ अत्यन्त स्वेद यानि पसीना आता हो।
48~ शरीर से बेकार सी बदबू आती हो।
49~ शरीर का कभी भी कोई अंग और अवयव फटने लगे।
50~ मुहँ में सदा कड़वाहट रहती हो।
51~ आंखों के सामने अंधेरा छाया रहे।
52~ स्किन हल्दी के रंग की होने लगे।
53~ मूत्र बहुत कम एव लाल-पीला एव जलन के साथ होता हो।
54~ मल-मूत्र और नेत्र हरे या पीले हो।
55~ दस्त हमेशा पतला आता हो।
56~ पखाना नियमित न होना, बंधकर नहीं आना एक बार में पेट साफ न होना आदि।
57~ काला-पीला, ज्यादा गिला और चिकनाई लिए मल का आना कफ, पित्त के कोप को इंगित करता है।
58~ पित्त दोष के रोगी का शरीर अक्सर गर्म सा रहता है।
59~ पित्त रोगी चमकीले पदार्थ या वस्तु देखने में असहज महसूस करता है।
60~ पित्त दोष वाले व्यक्ति की जीभ अधिक लाल, काली, कड़वी और काँटों जैसी खुरखुरी हो जाती है।
61~ पित्त के असंतुलन से हिक्का रोग यानि बार-बार हिचकी भी आती हैं।
62~ आन-तान, बड़बड़ बकना इत्यादि पित्त के कुपित होने के लक्षण हैं।
63~ पित्त प्रकृति वालों को अक्सर पित्त ज्वर एवं रक्त-पित्त ज्वर हमेशा बीमार बनाये रखते हैं।
64~ कई बार ऐसा देखा गया है कि
पित्त प्रधान व्यक्ति के बाल कम आयु में ही झड़कर गिरने तथा सफेद होने लगते हैं। पित्त से पीड़ित स्त्री-पुरुष की प्रकृति उपरोक्तानुसार हो, तो जान लें कि ये सारे लक्षण पित्त प्रकृति स्त्री पुरुषों के हैं।
आयुर्वेद या अन्य चिकित्सा पद्धतियों में त्रिदोष अर्थात वात-पित्त और कफ प्रकृति के आधार पर व्यक्ति के रोगों को निर्धारित किया जाता है।
■ पित्त का स्वरूप...
पित्त एक तरह का पतला द्रव्य यह गर्म होता है। आमदोष से मिले पित्त का रंग नीला और आम दोष से भिन्न पीले रंग का होता है। जब पित्त, आम दोष से मिल जाता है, तो उसे साम पित्त कहते हैं। सामपित्त दुर्गन्धयुक्त खट्टा, स्थिर, भारी और हरे या काले रंग का होता है। साम पित्त होने पर खट्टी डकारें आती हैं और इससे छाती व गले में जलन होती है।
■ कैसे पहचाने '13' पित्त प्रकृति को...
√ शरीर में से बहुत तेज दुर्गंध आती है?
√ बहुत जल्दी क्रोधित या गुस्सा हो जाते हैं।
√ स्वभाव अत्यन्त चिड़चिड़ा हो रहा है।
√ नकारात्मक विचार अधिक आते हों।
√ बार-बार बहुत भूख लगती हो।
√ ज्यादा समय तक भूखे नहीं रह पाते हो।
√ बाल ज्यादा झड़ते-टूटते हों।
√ युवावस्था में गंजेपन का शिकार होना।
√ हमेशा सिरदर्द या माइग्रेन बना रहता हो।
√ मुँह का स्वाद कड़वा, कसैला, खट्टा होना।
√ जीभ व आंखों का रंग लाल रहना।
√ शरीर गर्म, पेशाब का रंग पीला होता है।
√ अत्याधिक बार-बार पसीना आता है।
■ पित्त 2 तत्वों से निर्मित है...
शरीर में पित्त का निर्माण पंचतत्व में से 2 अग्नि तथा जल तत्व से हुआ है। जल इस अग्नि के साथ मिलकर इसकी तीव्रता को शरीर की जरूरत के अनुसार पित्त सन्तुलित करता है।
■ नर-नारी निर्माता नारायण द्वारा मानव शरीर में इसे जल में धारण करवाया है जिस का अर्थ है कि पित्त की अतिरिक्त गर्मी को जल द्वारा नियन्त्रित करके उसे शरीर की ऊर्जा के रूप में प्रयोग में लाना।
■ पित्त, अग्नि का दूसरा नाम है।
अग्नि के दो गुण विशेष होते है। पहला-वस्तु को जलाकर नष्ट करना। दूसरा कार्य है-ऊर्जा देना। पित्त से हमारा अभिप्राय हमारे शरीर की गर्मी से है। शरीर को गर्मी देकर, ऊर्जा दायक तत्व ही पित्त कहलाता है।
■ पित्त परमात्मा स्वरूप है-
पित्त शरीर का पोषण करता हैं। पित्त शरीर को बल देने वाला है। भोजन को पचाने में लारग्रंथि, अमाशय, अग्नाशय, लीवर व छोटी आँत से निकलने वाला रस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
■ क्यों जरूरी है सन्तुलित पित्त रहना...
# पित्त जीवन-मृत्यु विधाता है।
# पित्त के विषम या अशांत होने से
# विकार पैदा होने लगते हैं।
# पित्त की सन्तुलित गर्मी से प्राणी जीवित रहता है।
पित्त का शरीर में कितना महत्व है,इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि
# जब तक यह शरीर गर्म है, तब तक यह जीवन है। जब शरीर ठण्डा हो जाता है, तो उस व्यक्ति को मरा हुआ या मृत घोषित कर दिया जाता है।
■ पित्त का स्वाद, रंग और वजन...
पेट में बनने वाला पित्त स्वाद में खट्टा, कड़वा व कसैला होता है। इसका रंग नीला, हरा व पीला हो सकता है। पित्त शरीर में तरल पदार्थ के रूप में पाया जाता है। यह वज़न में वात की अपेक्षा भारी तथा कफ की तुलना में हल्का होता है। पित्त सम्पूर्ण शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में रहता है लेकिन इसका मुख्य स्थान हृदय से नाभि तक है।
■ ऋतु अनुसार पित्त की स्थिति....
मौसम की दृष्टि से बरसात के दौरान यह मई महीने से सितम्बर तक तथा दिन में दोपहर के समय तथा भोजन पचने के दौरान पित्त अधिक मात्रा में बनता है। युवावस्था में शरीर में पित्त का निर्माण अधिक होता है।
■ पित्त के सम होने से लाभ...
पित्त हमारे पाचन को नियंत्रित करता है। शरीर के तापमान को बनाए रखता है, त्वचा की रंगत, बुद्धि और भावनाओं पर भी पित्त का प्रभाव होता है। पित्त में असंतुलन आने के कारण व्यक्ति शारीरिक और भावनात्मक रूप से अस्वस्थ होने लगता है। अकेला पित्त शक्तिशाली आदमी को पल में चित्त करने की क्षमता रखता है। स्वस्थ्य रहने के 28 तरीके पढ़ें-
वायु की तरह पित्त भी नाम, स्थान एवं क्रियाओं के भेद से पित्त पाँच प्रकार का होता है- पित्त को हमारे शरीर में क्षेत्र व कार्य के आधार पर पाँच भागों में बाँटा गया है। ये इस प्रकार हैः- (एक) पाचक पित्त- यह अमाशय और पक्वाशय (Duodenum) के बीच में रहकर छह तरह के आहारों को पचाने में मददगार है और शेषाग्नि बल की वृद्धि कर-रस, मूत्र, मल आदि को अलग-अलग करता है। पाचक पित्त का कार्य... इसका मुख्य कार्य भोजन में मिलकर उसका शोषण करना है। यह भोजन को पचा कर पाचक रस व मल को अलग-अलग करता है।
पाचक पित्तः-पाचक पित्त पंचअग्नियों (पाचक ग्रन्थियों) से निकलने वाले रसों का सम्मिश्रित रूप है। इसमें अग्नि तत्व की प्रधानता पायी जाती है। ये पाँच रस इस प्रकार हैः-
1- लार ग्रन्थियों से बनने वाला लाररस।
2- आमाशय में बनने वाला आमाशीय रस।3- अग्नाशय का स्त्राव।
4- पित्ताशय से बनने वाला पित्त रस।
5- आन्त्र रस।
यह पक्कवाशय में रहते हुए दूसरे पाचक रसों को शक्ति देता है। शरीर को गर्म रखना भी इसका मुख्य कार्य है। पाचक पित्त मुख्यतः उदर में स्थित अमाशय और पक्वाशय में रहकर ही, अपनी पाचक शक्ति से शरीर के शेष अवयव यकृत, त्वचा, नेत्र आदि स्थानों सहित पूरे देह का पोषण (nutrition) न्यूट्रिशन करता है। इसी पित्त को जठराग्नि अथवा पाचक अग्नि भी कहते हैं।
यह अग्नि कांच के पात्र में दीपक के समान है। यही अग्नि अनेक प्रकार के व्यंजनों तथा भोजन को पचाती है।
■ पित्त की अग्नि किसमे-कितनी...
बड़े विशाल देहधारियों में यह अग्नि जौ के बराबर, छोटे शरीर वालों यानि मानव शरीर में यह तिल के बराबर और अतिसूक्ष्म किट-पतंगों में बाल की नोंक के समान प्रज्वलित रहती है। पाचक पित्त अन्न रस का पाचन कर शरीर के संक्रमण, रोगाणु, विषाणु और बैक्टीरिया का नाश करता है। यदि शरीर में पाचक पित्त सम अवस्था में बनता है, तो हमारा पाचनतन्त्र सुदृढ़ रहता है। जब शरीर में पाचन और निष्कासन क्रियाएं ठीक रहती हैं।
पित्त प्रकोप के दुष्प्रभाव...
जब देह में पाचक पित्त कुपित होता है, तो शरीर में नीचे लिखे रोग हो सकते है-
¶ जठराग्नि का मन्द होना!
¶ दस्त लगना!
¶ खूनी पेचिश!
¶ कब्ज बनना!
¶ अम्लपित्त (एसिडिटी)
¶ अल्सर (पेेेट का फोड़ा, घाव)
¶ मधुमेह (डाइबिटीज)
¶ मोटापा!
¶ हृदय रोग तथा
¶ कैलस्ट्रोल का अधिक बनना!
पाचक पित्त को नियंत्रित यानि कन्ट्रोल करने के लिए नीचे लिखी दवाओं का उपयोग एवं क्रिया-साधनाओं का अभ्यास करना होगा।
पाचक पित्त दूषित होने पर...
A- व्यायाम, ध्यान अवश्य करें।
B- गुलकन्द युक्त पान खाएं।
C- नाश्ते में मीठा दही लेवें
D- सुपाच्य हल्का भोजन,
E- केवल सुबह या दुपहर में सलाद, हरी सब्जियाँ,
F- ताजे फलों का सेवन भी पाचक पित्त को सम अवस्था में रखने में सहायक है।
G- कीलिव माल्ट 5 माह तक लेवें। कीलिव के फायदे जानने हेतु क्लिक करें
H- दूषित पित्त से उत्पन्न अम्लपित्त
को सन्तुलित करने के लिए
7 से 8 महीने नियमित खाली पेट लेना हितकारी होगा। जिओ माल्ट लिंक क्लिक कर जानें-
(दो) भ्राजक पित्त- यह पित्त सम्पूर्ण शरीर की त्वचा में रहकर विभिन्न कार्य करता है जैसे-
$- त्वचा को मुलायम बनाना!
$- शरीर को सौन्दर्य प्रदान करना!
$- विटामिन डी को ग्रहण करना तथा
$- वायुमण्डल में पाए जाने वाले रोगाणुओं से शरीर की रक्षा करना!
भ्राजक पित्त-
शरीर की कांति, चिकनाई आदि का उत्पादक तथा रक्षक है। यह पित्त देह की त्वचा में रहकर कान्ति, चमक, रौनक उत्पन्न कर देह को सुंदरता प्रदान करता है। भ्राजक पित्त के कारण ही शरीर में किया गया लेप, चन्दन, उबटन, मालिश किया हुआ तेल आदि तन में समाहित होकर सूख पाते हैं। क्यों आवश्यक है-अभ्यंग- अनेक स्त्री-पुरुष महीनों तक मालिश, उबटन आदि नहीं करते, उनकी स्किन रूखी, कटी-फटी रंगहीन होने लगती है। काया की कान्ति नष्टप्रायः हो जाया करती है। स्किन डिसीज, सोरायसिस आदि रक्तविकारों का कारक भ्राजक पित्त माना जाता है।
भ्राजक पित्त के कुपित होने पर शरीर में नीचे लिखे रोग आने की सम्भावना बनी रहती है-
(अ) त्वचा पर सफेद दाग!
(ब) लाल चकत्तों का दोष होना।
(स) चर्म रोग (स्किन डिसीज़) का होना।
(द) शरीर में फोड़ा, फुन्सी होना।
(ई) एग्जिमा। त्वचा का फटना आदि।
भ्राजक पित्त को विकार रहित बनाने के लिए करें ये उपाय-
£- कोई ऐसा श्रम करें, जिससे शरीर से पसीना निकलने लगे।
£- सुबह सूर्य की रोशनी लेवें।
£- स्नान के बाद तेल लगाएं।
विशेष कारगर हर्बल ऑयल...
यदि गुंजाइश हो, तो महीने में एक बार पूरी देह में बहुत ही बहुमूल्य
अमृतम कुमकुमादि तेलम अच्छी तरह लगाकर अभ्यंग करें। यह ऑयल 30 ML 2999/- का है।
£- मीठा दूध अवश्य पियें।
अघोरी की तिजोरी से उपाय...
£- कालीमिर्च, सेंधानमक, नागकेशर, 1-1 ग्राम, मीठा नीम, तुलसी, एलोवेरा, अमलताश गूदा 3-3 ग्राम और दो नग अंजीर मिलाकर
20 बड़ी गोली बनाएं, इसे दिन में 3 बार सादे जल से पाँच महीने तक लेने से अंसतुलित, दूषित भ्राजक पित्त सम हो जाता है।
£ भ्राजक पित्त को शरीर में सम अवस्था में रखने के लिए प्रतिदिन सूर्य समक्ष अमृतम
काया की बॉडी मसाज ऑयल (चन्दन, गुलाब इत्र युक्त) से सप्ताह में 2 बार पूरे शरीर में सिर से तलबों तक मालिश कर स्नान करना लाभप्रद है।
भ्राजक पित्त को
धन्वन्तरि सहिंता में वात-पित्त बताया है। इसलिए
ऑर्थोकी गोल्ड केप्सूल रोज एक दूध के साथ 30 दिन तक सेवन करें।
£-
अमृतम टेबलेट 1 से 2 गोली सुबह खाली पेट और रात को खाने से पहले या बाद में सादे जल से 5 से 6 माह लेवें।
€-
कीलिव माल्ट दिन में 2 से 3 बार दूध या पानी के साथ 3 माह तक सेवन करें
(तीन) रंजक पित्त- रंजक पित्त यकृत में बनकर पित्ताशय में रहता है। रंजक पित्त का कार्य देह में बड़ा ही महत्वपूर्ण एवं रहस्यमयी है। मानव शरीर में भोजन के पचने पर जो रस बनता है रंजक पित्त उसे शुद्ध करके उस रस से खून बनाता है।
अस्थियों की मज्जा (Bone marrow) से जो रक्त कण (Corpuscle) बनते हैं, उन्हें रंजक पित्त लाल रंग में रंगने का कार्य करता है। तत्पश्चात इसे रक्तभ्रमण प्रणाली (Blood circulatory system-मानव शरीर- रुधिर परिसंचरण तंत्र) के माध्यम से शरीर की सम्पूर्ण रक्तवाहिनियों में पहुंचा दिया जाता है। यदि रंजक पित्त का सन्तुलन बिगड़ जाता है, तो शरीर में लीवर से सम्बन्धित रोग होने लगते हैं। जैसे-पीलिया, अल्परक्तता अर्थात खून की कमी, (Anemia) तथा शरीर में कमजोरी आना अर्थात् शरीर की कार्य क्षमता कम हो जाना इत्यादि।
रंजक पित्त- पेट के पाचक रस को परिवर्तित कर रक्त निर्माण में सहायक है मतलब यकृत यानी लिवर और प्लीहा में रहकर खून बनाने एवं रंगने का कार्य रंजक पित्त करता है। मानव शरीर में प्लीहा या तिल्ली (Spleen) एक अंग है यह पेट में स्थित रहता है। पुरानी लाल रक्त कोशिकाओं को नष्ट करने में रंजक पित्त सहायक है। ये रक्त का संचित भंडार भी है। यह रोग निरोधक तंत्र का एक भाग है। रंजक पित्त की पवित्रता हेतु अमृतम गोल्ड माल्ट 3 माह तक लेवें।
रंजक पित्त नीचे लिखे उपायों से नियन्त्रित होता है-
&- कब्ज, कॉन्स्टिपेशन कतई न होने दें
&-कपालभाति योग करें।
&- पपीता, गन्ने का रस, अमरूद लेवें।
&- गुलकन्द, हरड़ मुरब्बा, बेल मुरब्बा लेवें।
&- धनिया का जूस 1 चम्मच गुड़ के साथ लें
&- रात को नमकीन दही कतई न लें।
(चार) साधक पित्त-
■ साधक पित्त के चमत्कारी लाभ...
¥ यह हृदय में रहता है।
¥ बुद्धि को तेज करता है।
¥ व्यक्ति को प्रतिभाशाली बनाता है।
¥ नवीन बुद्धि का निर्माण करता है।
¥ उत्साह व आनन्द की अनुभूति कराता है। ¥ आध्यात्मिक शक्ति देता है।
¥ सात्विक वृत्ति का निर्माण करता है।
¥ ईर्ष्या, स्वार्थ, द्वेष-दुर्भावना को मिटाता है।
साधक पित्त-शरीर में सबसे महत्वपूर्ण हृदय में इसका स्थान है। कफ और तमोगुण नाशक और मेधा तथा बुद्धि उत्पन्न कर ब्रेन को क्रियाशील बनाये रखता है। आचार्य डलहण ने लिखा है- हृदय में जो पित्त या द्रव्य विशेष होता है, वह चार पुरुषार्थ जैसे धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष का साधन करने वाला होने से, उसे साधक पित्त या साधकाग्नि की संज्ञा दी गई है। इसे ही इच्छित मनोरथो का साधन एवं पूर्ण करने वाला बताया है। अतः साधकपित्त दूषित होने से सोचे हुए कार्य अथवा की गई प्रार्थना पूर्ण नहीं हो पाती। पवित्र बनाने का उपाय... साधक पित्त निर्मल बनाने के लिए 5 माह तक ब्रेन की गोल्ड टेबलेट एवं ब्रेन की गोल्ड माल्ट का सेवन दूध के साथ दिन में 2 से 3 बार तक करना चाहिए।
■ अन्य सुझाव-
नीचे लिखी क्रियाओं के अभ्यास से साधक पित्त सन्तुलित रहता है।
♂ धार्मिक व आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ना,
♂ महापुरुषों के प्रवचन सुनना,
♂ किसी शिवालय की साफ-सफाई करना।
♂ लोगों की मदद, भला करना।
♂ ॐ शम्भूतेजसे नमः मन्त्र जपना।
♂ आत्म-चिन्तन करना।
♂ लोकहित के कार्य करना।
♂ आसन, ध्यान, सूर्य नमस्कार करना।
♂ प्राणायाम, शवासन, योग निद्रा करना।
■ साधक पित्त के कुपित होने पर
होती हैं ये परेशानियां...
[!] स्नायु तन्त्र गड़बड़ा जाता है।
[!!] मानसिक रोग होने लगते हैं। जैसे-
[!!!] जीवन में नीरसता आना।
[!!!!] आधाशीशी, सिरदर्द, माईग्रेन, मूर्छा,
[!!!!!]अवसाद (डिप्रेशन), अधरंग, अनिद्रा
[!!!!!!]और मन में उच्च व निम्न रक्तचाप
तथा हृदय रोग का भय बने रहना।
(पांच) आलोचक पित्त के फायदे... आलोचक पित्त-यह पित्त आंखों में रहता है। देखने की क्रिया का संचालन करता है। नेत्र ज्योति को बढ़ाना और दिव्य दृष्टि को बनाए रखना इसके मुख्य कार्य हैं।
इसी के कारण प्राणी देख पाता है और रूप के प्रतिबिंब को ग्रहण करता है। यह पुतली के बीचोबीच रहता है और मात्रा में तिल के बराबर है। इसी से सबको दिखाई पड़ता है। आलोचक पित्त की शुद्धि हेतु- सुबह नँगे पावँ दूर्वा, हरि घास में उल्टे चले। कालीमिर्च, मिश्री, बादाम, सौंफ समभाग लेकर चूर्ण बनाएं। सुबह- शाम 1 से 2 चम्मच जल या दूध से लें।
(()) कुन्तल केयर हर्बल माल्ट
1 से 2 चम्मच दिन में दो बार लेवें।
(हेम्प युक्त) बालों में लगायें।
■ आलोचक पित्त की विषमता से आंखे हो जाती हैं खराब- आलोचक पित्त जब कुपित होता है, तो नेत्र सम्बन्धी दोष शरीर में आने लगते हैं यथा नज़र कमजोर होना, आंखों में काला मोतिया व सफेद मोतिया के दोष आना।
आलोचक पित्त को नियन्त्रित करने के लिये साधक को नीचे लिखी क्रियाओं का अभ्यास करना चाहिये।
■ कैसे करें आलोचक पित्त की शुद्धि...
● सुबह खाली पेट देशी घी में बताशे गर्म करके, उस पर कालीमिर्च, सेंधा नमक भुरककर खाएं।पानी न पिएं।
● प्रतिदिन आंखें साफ करें।
● नेत्रधोति का अभ्यास करें।
● मुँह में पानी भरकर आँखों में शुद्ध जल के छींटे लगाएं।
● सादे जल में गंगाजल मिलाकर अथवा त्रिफले के पानी में आंखों को डुबो कर आंख की पुतलियों को तीन-चार बार ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं एवं वृत्ताकार दिशा में घुमाएं।
■ पित्त कोप के कारण क्या हैं-
◆ अधिक क्रोध, शोक, दुःख, परिश्रम,
◆ व्रत-उपवास, मैथुन/सेक्स करना।
◆ ज्यादा दौड़ना या चलना।
◆ बहुत खट्टे फल, केंरी, अमचूर आदि
◆ तेज मिर्ची का नमकीन, रूखे, चरपरे, गर्म, हल्के और दाह अर्थात गर्मी पैदा करने वाले खाद्य पदार्थों का सेवन करना।
◆ नीठ शराब यानि बिना पानी के पीना।
◆ रात्रि में अरहर की दाल,
◆ नमकीन दही, छाछ एवं
◆ तेज मसाले युक्त भोजन लेना। हरी सब्जी कच्ची खाना।
◆ गर्मी, क्रोध या पसीने में सम्भोग करना
◆ नशीले पदार्थों का सेवन करना।
◆ ज्यादा देर तक तेज धूप में रहना।
◆ अधिक नमक का सेवन करना। ये सब पित्त प्रकोप के कारण हैं। वर्षाकाल में रात को जागने तथा अधिक श्रम से पित्त की वृद्धि होने लगती है।
पित्त के प्रकोपित होने का समय...
गर्मी के दिनों में, शरद ऋतु के समय मध्यान्ह काल में। आधी रात और भोजन पचते वक्त पित्त विशेषकर कुपित होता है। जवानी के समय सभी को पित्त व्यापता है। इसलिए सही समय, कम उम्र में विवाह करना स्वास्थ्य के लिए हितकारी होता है।
■ पित्त शान्ति के प्राकृतिक उपाय...
¢ सूर्योदय से पूर्व उठे।
¢ बिस्तर पर धीरे-धीरे गहरी-गहरी सांसे नाभि तक ले जाकर 5 बार छोड़ें। फिर दोनो हाथों को रगड़कर आंखों पर लगाकर अत्यन्त प्रसन्नपूर्वक उठकर,
¢ ताम्बे या मिट्टी के पात्र का 3 से 4 गिलास जल पियें।
¢ कुछ देर टहलकर शौचादि से निवृत हों।
¢ देशी घी, मख्खन, मीठा दही,
¢ गुलकन्द, आँवला मुरब्बा, सेव मुरब्बा और हरड़ मुरब्बा और
जिओ गोल्ड माल्ट का खालीपेट सेवन करना लाभकारी रहता है।
रोज 2 गोली
अमृतम टेबलेट रात्रि में भोजन से पूर्व सादा जल से लेवें। यह टेबलेट अमाशय में घुसकर
विकार कर्ता पित्त के मूल को पूर्णरूप से छेदन कर मल द्वारा पूरा पित्त बाहर निकाल फेंकती है।
■ पित्तदोष का देशी इलाज...
पित्त नाशक फल, मेवा-मुरब्बे आदि.. मुनक्का (द्राक्षा), केला, अनारदाना या जूस, छुहारा, ककड़ी, खीरा, करेला, पेठा, पुराने चावल, गेहूं, मिश्री, दूध, चना, मूंग की छिलके वाली दाल, धान्य की खील अपने भोजन का हिस्सा बनाये।
बिना खर्च की चिकित्सा...
माथे और पेट पर चन्दन का लेप लगाएं अमृतम चन्दन लगाने से तन-मन, अन्तर्मन और आत्मा पवित्र-शुद्ध हो जाती है। चन्दन तिलक-त्रिपुण्ड के फायदे पढ़ने हेतु नीचे लिंक क्लिक करें--
कैसे भी मन को मस्त-मलंग बनाने
के लिए करें यह प्रयास...
™ मित्र-मिलन, ™ मीठी बातें,
™ मनोहर गीत, ™ नाच-गाना,
™ शीतल मंद फब्बारे,
™ नङ्गे पैर दुर्ब में चलना,
™ प्राणायाम,
™ हसीं-मजाक,
™ प्यार-मोहब्बत की पुरानी बातें पित्त विकार से पीड़ित, परेशान मरीजों के लिए पथ्य अर्थात उपयोगी या कारगर उपाय है।
■ पित्त का महत्व और 6 काम...
हमारे शरीर में निम्नलिखित कार्य करता हैः-
@ भोजन को पचाना।
@ नेत्र ज्योति बढ़ाना।
@ त्वचा को कान्तियुक्त बनाना।
@ स्मृति तथा बुद्धि प्रदान करना।
@ भूख प्यास की अनुभूति करना।
@ मल को बाहर कर शरीर को निर्मल करना।
पित्त जब पापी हो जाये, तो सन्तुलित पित्त जहाँ शरीर को बल व बुद्धि देता है, वहीं यदि इसका सन्तुलन बिगड़ जाए तो यह बहुत घातक सिद्ध होता है। कुपित पित्त से हमारे शरीर में कई प्रकार के रोग आते है। वात-पित्त-कफ के विषम होने पर 100 से अधिक बीमारियों का खतरा रहता है। इसलिए बचाव के लिए इन नेचुरल उपायों को अपनाना उचित है- पित्त की शोधन चिकित्सा... वमन, विरेचन, वस्ति, नस्य द्वारा शरीर से दूषित, विषाक्त तत्वों (टॉक्सिन्स) को शरीर से निकाला जाता है।
पित्त की शमन चिकित्सा....
द्वारा दीपन, पाचन (पाचन तंत्र) और उपवास आदि उपाय करके शरीर के दोषों को निरोग कर शरीर को सामान्य स्थिति में वापस लाया जाता है। त्रिदोषनाशक यह दोनों चिकित्सा एवं उपाय शरीर में मानसिक व शारीरिक शांति बनाने के लिए आवश्यक हैं। आयुर्वेद रोगरहित, शांतिप्रिय जीवन जीने का तरीका सिखाता है।
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पित्त का एक और रहस्य- चार तरह की अग्नि यथा-
१-मंद, २- तीक्ष्ण,
३- सम, ४- विषमाग्नि
में से एक तिक्षणाग्नि, पित्त प्रकृति वालों की होती है। जिसमें भूखे रह पाना मुश्किल होता है।
सात प्रकार के रोगों में पित्त का प्रभाव...
(!) कायिक रोग
(!!) कर्मज व्याधि
(!!!) दोषज व्याधि
(।v) त्रिविधा रोग
(v) आगन्तुक रोग
(v।) स्वाभाविक रोग
(v।।) मानसिक रोग
इसमें कर्मज रोग पित्त प्रकृति का बताया है- जो पूर्व जन्म के प्रबल दुष्ट कर्मों-कुकर्मों के कारण होना बताया है। कर्मज रोग में किसी भी अच्छी चिकित्सा करने से आराम नहीं मिलता। ऐसे असाध्य मरीजों को शिंवलिंग पर 11 रविवार जल में चन्दन इत्र मिलाकर रुद्राभिषेक कराने से ही लाभ मिलता है।
वेदों के मन्त्र के मुताबिक क्या दवाएँ खाना जरूरी है- माँ समान होती हैं आयुर्वेदक दवाएँ.. शास्त्रों में अमृतम आयुर्वेदक ओषधियों को माता कहकर नमन किया है- शतं वो अम्ब धामानि सहस्त्रमुत वो रूह: अधा शतकृत्वो यूयमिमं मे अंगदं कृत।।
अर्थात- हे माँ जगतजननी! आपकी शक्तियां अनन्त हैं और वृद्धि भी हजारों प्रकार की हैं। हे सत्य-सामर्थ्य धारण करने वाली ओषधयाँ, तुम मेरे इस रुग्ण, व्याधि विकार युक्त देह को रोगों से मुक्त कर दो। इसलिए हर्बल दवाएँ पूर्ण श्रद्धा विश्वाश के साथ लेने से अनेक असाध्य रोग ठीक हो जाते हैं। यह निराला पन, अपनापन सन्सार की किसी भी चिकित्सा में नहीं है।
लम्बी उम्र तक स्वस्थ्य रहने के लिए केवल आयुर्वेदिक औषधियों का ही सेवन करने की सलाह दी जाती है पित्त दोष की अनेकों दवाएँ बाजार में उपलब्ध हैं, जिससे व्यक्ति भ्रम में पड़ गया है। किसे लें...किसे न लें! इसलिए बचाव के तरीकों पर काम करना उचित रहेगा...