आयुर्वेद में हैं रोग परीक्षा के ५००० साल पुराने सूत्र!

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आयुर्वेद में हैं रोग परीक्षा के ५००० साल पुराने सूत्र!

त्रिविधि रोग परीक्षा

चरक ने तीन प्रकार से रोगों की परीक्षा करने का निर्देश किया है-प्राप्तोपदेश, प्रत्यक्ष तथा अनुमान। जिन्होंने पदार्थों के ज्ञातव्य विषयों का साक्षात्कार किया है, उनको प्राप्त (यथा ऋषि) कहते हैं उनके द्वारा रचित ग्रन्थ या वचन को प्राप्तोपदेश कहा जाता है।

प्रत्येक विषय में पहले इसी प्रमाण के द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। इनके द्वारा रोगों में दूष्य-दोषों की विषमता साध्यासाध्यलक्षण, उपद्रव, रोग के लक्षण प्रभृति पर्याप्त विषय प्राप्त होता है।

तत्पश्चात प्रत्यक्ष परीक्षा करने का क्रम आता है। आत्मा, मन, इन्द्रिय और उनके विषय (कार्य) इनके सम्बन्ध होने पर उसी समय जो सत्य ज्ञान होता है, उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है।

 जैसे- रोगी की आवाज, मलमूत्र आदि का रंग, घाव की पीव तथा स्रव आदि।

अन्त में शेष विषयों को अनुमान द्वारा ज्ञात करना चाहिए। अनुमान परीक्षा का अर्थ इस शब्द से स्पष्ट है।

षडविध रोग परीक्षा....

सुश्रुत ने ६ प्रकार से रोगों की परीक्षा करने का वर्णन किया है।

यथादुष्टेन दोषेण यया चानुविसर्पता।

निवृत्तिरामस्यासी संप्राप्तिातिरागतिः।।

विविध खलु रोग विशेषज्ञानं भवति।

तद्यथा प्राप्तोपदेश: प्रत्यक्ष मनुमानचेति।।

पंचज्ञानेन्द्रियों से तथा छठवाँ प्रश्न के द्वारा अर्थात् नेत्रों से देखकर कान से सुनकर, नासिका से गंध लेकर, जिह्वा से रस जानकर, त्वचा से स्पर्श करके, प्रश्न द्वारा रोगी या उसके सम्बन्धी से रोगी की उम्र आदि सब जानकारी इनका ज्ञान करना इस षड्विध परीक्षा में प्रतिपाद्य है।

अष्टविध रोग परीक्षा...

महान शिव भक्त आयुर्वेदाचार्य वाग्भट ने आठ प्रकार की रोग परीक्षाएं लिखी हैं-दर्शन, स्पर्शन, प्रश्न, निदानस्वरूप, रूप सम्प्राप्ति तथा उपशय

इन सबका अर्थ बताया जा चुका है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि वाग्भट ने रोग तथा रोगी परीक्षा दोनों के लिए पृथक् निर्देश किया है।

यदि सूक्ष्म रूप से देखा जाये, तो हमें रोग व रोगी परीक्षा में अन्तर स्पष्ट होता है।

रोग परीक्षा करने में या ज्ञान प्राप्ति (निश्चित अर्थ) के लिए निदान, पूर्वरूप, लक्षण, उपशय, सम्प्राप्ति इनका प्रयोग करना चाहिए और जहाँ रोगी परीक्षा की बात आती है, वहाँ दर्शन, स्पर्शन, प्रश्न द्वारा कार्य सम्पन्न करना चाहिए।

 वाग्भट का यही मत है। अन्यत्र अवलोकन से ज्ञात होता है कि केवल रोगी की आठ परीक्षाएँ आयुर्वेद में वर्णित हैं।

 नाड़ी, मूत्र, मल, जिह्वा, शब्द, स्पर्श, नेत्र तथा प्राकृति परीक्षा। इस प्रकार रोगी के शरीर की इन आठ उपायों से परीक्षा करनी चाहिए।

समन्वयात्मक समीक्षा...

उपरोक्त विवरण में अनेक प्रकार की परीक्षायें प्रस्तुत की गयी हैं। यदि गंभीर रूप से विचार किया जावे, तो ज्ञात होता है कि वाग्भट का मत पाश्चात्य पद्धति से काफी मिलता है।

नवीन विज्ञान की पांच प्रमुख परीक्षाएँ प्रश्न (Interrogation, दर्शन (Inspection), स्पर्शन (palpation), अंगुली ताड़न (percussion), श्रवण परीक्षा, (Ausculation) इत्यादि, आयुर्वेद की परीक्षा से मिलती हैं। इनको एलोपेथी की नवीन देन नहीं माना जा सकता।

षड्विधो हि रोग विज्ञानोपायः।

पंचभिः श्रोत्रादिभिः प्रश्नेन च।।

दर्शनस्पर्शन प्रश्नः परीक्षेतार्थ रोगिणाम्।

रोग निदानप्राग्रूप लक्षणोपशयादिभिः।।

 रोगाक्रान्त शरीरस्य स्थान्यष्टौ परीक्षयेत्।

नाड़ीमूत्रं मल जिह्वा शब्दं स्पर्श दृगाकृती॥

आँख, नाक, कान आदि से परीक्षाओं को एलोपेथी में विशेष महत्त्व प्राप्त है, आयुर्वेद में भी शारीरिक परीक्षाओं (सुश्रुतोक्त) का अपना महत्व है।

सारांशतः रोगों की सबसे विकसित एवं यथार्थ परीक्षा विधि निदानपंचक निदान (Dignosis), पूर्वरूप (Prodrom), रूप (Symptoms), सम्प्राप्ति (Pathogenesis उपशय (Thnrapmatic test) है।

इसमें आयुर्वेद तथा एलोपेथिक की सम्बन्धित सभी परीक्षाएँ अन्तर्भूत हो सकती हैं। वैद्यों को नवीन यन्त्रादि के प्रयोग का ज्ञान भी आवश्यक हो गया है।

रोगी परीक्षण का प्रारूप (Clinical Examination)....

रोग का सत्य ज्ञान करने हेतु रोगी का भली-भाँति निरीक्षण किया जाता है। इस क्रम में सर्वप्रथम, रोगी का इतिहास (Case Taking) लिखना होता है। इसके लिए सर्वप्रथम प्रवेशतिथि, आगार-शैय्या, रोगी का नाम, लिंग, आयु तया पता अंकित किया जाता है। तदुपरांत आगामी क्रमों को दो वर्गों में विभाजित कर लेते हैं।

(क) प्रश्नात्मक

(१) रोगी की मुख्य वेदना, प्रारंभ होने का समय तथा विशिष्ट क्रम, वर्तमान रूप से विशेष कष्टकारक लक्षणों का विवरण, रोगोत्पत्ति का वृत्त (ड्यूरेशन)- इत्यादि लिखना चाहिए।

(२) रोगी के वैयक्तिक इतिहास में निवास स्थान, भोजन, मादक वस्तुओं का प्रयोग, जीविका, विवाह, सन्तान (स्त्री रुग्णा यदि है तो, कुल प्रसवों की तथा जीवित-मृत सन्तानों का लिंग, मासिक धर्म सहित उल्लेख आदि।

 सामाजिक अवस्था आर्थिक स्थिति तथा अन्य मानसिक भावों का पूर्ण विवरण प्राप्त करना चाहिये।

रोगी के बारे में यह जानना आवश्यक है कि परीक्ष्य रोगी कुछ विशिष्ट रोगों, यथाआमवात, प्रान्त्रिक ज्वर, वातरक्त, फिरंग,कुक्कुर कास, उपदंश आदि, से पीड़ित रहा है अथवा नहीं।

द्वितीय पक्ष, रोगी के परिवार (तथा निकट सम्बन्धियों)के स्वास्थ्य के विषय में है कि वे मृत्यु के समय या वर्तमानतः, यक्ष्मा, घातक रोग, हृद्रोग तमकश्वास, मस्तिष्कगत रोग उन्माद, अपस्मार आदि से ग्रस्त थे अथवा हैं।

(ख) परीक्षात्मक

 इसके अन्तर्गत रोगी के शरीर की सामान्य परीक्षा (ऊँचाई, आसन, शिर, ग्रीवा, त्वचा, मुख मण्डल, गति, विस्फोट आदि) के उपरांत प्रत्येक संस्थान (सिस्टम्स) का भली भांति परीक्षण करना चाहिए।

जिसमें वर्तमान वेदना क्रम से जिस संस्थान का रोग ग्रस्तता से विशेष संबंध प्रतीत होता है, उसका और विस्तार से सूक्ष्म निरीक्षण अपेक्षित निरीक्षण अपेक्षित है । इसके अतिरिक्त निश्चित निदान हेतु, प्रयोगशालीय, क्ष-किरण तथा आधुनिकतम विविध परीक्षण किये जाते हैं।

रोगी परीक्षा 

रोग परीक्षा में रोगी की पाठ परीक्षाएँ नाड़ी (pulse) मूत्र (urine) मल (Stool), जिह्वा (Tongue), शब्द (Voice) नेत्र (Eye), स्पर्श (Sensation) तथा प्राकृति (Face) बताई गई हैं।

इन रोगी परीक्षाओं (Clinical Examinations) में अन्य नवीन आविष्कृत परीक्षायें भी सम्मिलित हैं। प्रमुख तथा व्यावहारिक रोगी परीक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन यहाँ किया जा रहा है।

नाड़ी परीक्षा...

आयुर्वेद में नाड़ी परीक्षा का बहुत महत्व है। लोक में वैद्य के लिए नाड़ी परीक्षा का ज्ञान परमावश्यक समझा जाता है।

शास्त्र में विधान है कि रोगी को नाड़ी देखते समय चिकित्सक प्रसन्न मन से और चित्त को एकाग्र करके अपनी तीन अंगुलियों से रोगी के हाथ की नाड़ी परीक्षा करें।

हाथ की कलाई में अंगुष्ठ मूल के ऊपर बाह्य प्रकोष्ठीया धमनी (Radial Artery) होती है। इसे ही प्रायः अँगुलियों से दबाकर स्पन्दन का ज्ञान किया जाता है।

शरीर विज्ञान के अनुसार हृदय शारीरिक दुःख-सुख को प्रकाशित करता है, बार बार उसका संकोच व विस्फार होता है।

संकोच के समय वायु बाहर निकलने व विस्फार के समय वायु अन्दर जाने के कारण रक्त को धारण करने से नाड़ी चलती है। इससे रोग या स्वास्थ्य के विषय में ज्ञान किया जाता है।

स्थिरचत्तः प्रसन्नात्मा मनसा च विशारदाः। स्पृशेदंगुलिभिर्नाडी जानीयाद् दक्षिणकरे।।

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