कालीमिर्च की कलाकारी और लाभ!

कालीमिर्च की कलाकारी और लाभ!

Read time : min

कालीमिर्च की कलाकारी और लाभ!

कालीमिर्च की कलाकारी और लाभ!

  • कालीमिर्च तीखी होती है और गले व कन्ठ रोगों में उपयोगी है।
  • कालीमिर्च का पावडर यदि रोज 10 मिलीग्राम अगर मधु पंचामृत शहद के साथ चाटें, तो जीवन भर दिल का दौरा नहीं पड़ता।

अथ मरीचस्य नामानि गुणाश्चाह!

मरिचं वेल्लजं कृष्णमूषणं धर्मपत्तनम् ॥ ५९॥

मरिचं कटुकं तीक्ष्णं दीपनं कफवातजित् ।

उष्णं पित्तकरं रूक्षं श्वासशूलकुमीन्हरेत् ॥६० ॥

तदाद्रं मधुरं पाके नात्युष्णं कदुकं गुरु ।

किञ्चितीक्ष्णगुणं श्लेष्मप्रसेकि स्यादपित्तलम् ॥६१॥

कालीमिर्च को भावप्रकाश ग्रन्थ में मरीच कहा गया है।

  • मरिच के नाम तथा गुण- मरिच, वेल्लज, कृष्ण, ऊषण और धर्मपतन ये मरिच के संस्कृत नाम हैं।
  • मरिच- के फायदे….कदुरस युक्त, तीक्ष्ण, अग्निदीपक, कफ तथा वायु को दूर करने वाला, उष्णवीर्य, पित्तकारक और रूक्ष है एवं श्वास, शूल तथा कृमिरोग को नष्ट करने वाला होता है।
  • यदि यही ताजी (आई) हो तो-पाक में मधुर रस युक्त, थोड़ा उष्णवीर्य, कटुरस युक्त, पाक में गुरु, थोड़ा तीक्ष्ण गुण से युक्त, कफ को गिराने वाला और थोड़ा पित्तकारक होता है।

मरिच–नियन्ते जन्तवोऽनेनेति वा!

म्रियते जिह्वा अनेन इति मरिचम्।

( जिससे जन्तु आदि का नाश होता है या जिससे जिह्वा का स्वाद समाप्त होता है।)

  • हिंदी में-मरिच, मिरच, गोल मरिच, काली मरिच, दक्षिणी मरिच, गोल मिर्च, चोखा मिरच बं० मरिच, गोल मरिच, गोल मिरच, मुरिच, मोरिच मराठी-मिरे, काली मिरी कन्नड़ ओल्लेमेणसु । गुजगत में मरि, मरितीखा, मरी, कालमरी। ते०-मरिचमु, शव्यमु, मरियलु ता० नल्लुमुलकु, मोलह शेव्वियम् पं०-काली मरिच, गोल मिरिच मा०-काली मरिच मोटिया०-स्पोट | काश्मी०-मर्ज । सिन्धी०- गुलमिरोएं। मला०-कुरु मुलकु, कुरू मिलगु । अफ०-दारुगर्म फा०-पिलपिले अस्वद, फिल्फिल अस्वद, स्याह गिर्द, हलपिला गिर्द, फिलूफिलू स्याह । अ०-फिल्ल्फिले अवद, फिलूफिल् गिर्द, फिल् फिलस्सोदाय, पिलूल्पिले गिर्द। अं०-Black Pepper (ब्लॅक पेप्पर)। लेo-Piper nigrum Linn. (पाइपर नाइअम्) Fam. Piperaceae (पाइपरेसी)।
  • कालीमिर्च दक्षिण कोंकण, आसाम, मलाबार तथा मलाया और स्याम इसका उत्पत्ति स्थान है।
  • कालीमिर्च दक्षिण भारत के उष्ण और आईं भागों में त्रिवांकुर, मलावार आदि खादर तथा गीली जमीन में यह अधिकता से उत्पन्न होती है।
  • कालीमिर्च कच्छार, सिलहट, दार्जिलिंग, सहारनपुर और देहरादून के पास भी इसकी खेती की जाती है।
  • वर्षा ऋतु में इसकी लता को पान के बेल के समान छोटे-छोटे टुकड़े कर बड़े-बड़े वृक्षों की जड़ में गाड़ देते हैं। ये लता रूप से बढ़कर वृक्षों का सहारा पाने से उनके ऊपर चढ़ जाती है।
  • कालीमिर्च के पत्ते – ७.५०० १७.५० से.मी. लम्बे तथा ५-१२.५० से.मी. चौड़े, गोलाकार, नुकीले तथा पान के पत्तों के आकार के होते हैं। फल-गुच्छों में लगते हैं।
  • कालीमिर्च कच्ची अवस्था में फल हरे रंग के होते हैं। उस अवस्था में चरपराहट कम होती है। जब पकने पर आते हैं तब उनका रंग नारंग लाल हो जाता है। उसी समय तोड़कर सुखा लेते हैं।
  • कालीमिर्च सूखने पर काले रंग के हो जाते हैं। पूरे पक जाने पर तोड़ने से चरपराहट कम हो जाती है।
  • पूर्वी मरिच की अपेक्षा दक्षिणी मरिच अधिक गुणदायक है। दक्षिणी मरिच ऊपर से भूरी तथा भीतर से हरियाली युक्त सफेद होती है। यह अधिक तीक्ष्ण होती है।
  • पूर्वी मरिच ऊपर से अधिक काली और भीतर सफेद होती है। अधिक पके फलों को जब वे पीले हो जाते हैं तब तोड़कर पानी में फुला कर छिलके दूर करके सुखा लेते हैं। उसी को सफेद मरिच कहते हैं।
  • मरिच के ऊपरी छिलके में कटु द्रव्य अधिक रहता है इसलिये सफेद मरिच कम कटु रहती है।
  • इस सफेद मरिच को बं० में सादा मरिच’, म०-में ‘पांढरेमिरे, गु०-में ‘थोला मरी’, कo-में ‘विलेय मेणसु’ और ता०-में ‘मिलाओ’ कहते है।
  • कालीमिर्च का रासायनिक संगठन—इसमें उड़नशील, जल में न घुलनेवाला, पाइपरीन नामक एक वेदार क्षाराभ ५-९%, पाइपरीडीन ५%, चविसीन नामक कटुराल, एक अन्य हरे रंग की कटुराल ६%, उडनशील तैल १-२.५%, स्टार्च ३०%, ईथर में घुलनशील न उड़ने वाला पदार्थ ६%, प्रोटोड ७% तथा लिगनिन, गोद आदि कुछ अन्य द्रव्य पाये जाते हैं।।
  • कालीमिर्च के गुण और प्रयोग—मरिच का प्रयोग अनेक योगों में किया जाता है। यह सुगन्धित, उत्तेजक, पाचक, अग्निदीपक, रुचिकर, स्वेदकर, कफघ्न एवं कृमिहर है।
  • कालीमिर्च का उत्तेजक प्रभाव आंत्र एवं मूत्र संस्थान की श्लेष्मल कला पर पड़ता है।
  • कालीमिर्च के सेवन से मूत्र की मात्रा बढ़ती है और इसका उपयोग पुराने सुजाक में किया जाता है।
  • कालीमिर्च के सेवन से आमाशयिक रस की वृद्धि होती है और पाचन की क्रिया सुधरती है।
  • घृत के पाचन यानि घी पचाने में यह विशेष उपयोगी है।
  • कालीमिर्च का उपयोग आध्मान, अपचन, प्रवाहिका, आमाशय शविल्य आदि में अच्छा होता है।
  • प्रवाहिका में कालीमिर्च के सूक्ष्म चूर्ण को हींग एवं अफीम के साथ दिया जाता है।
  • स्याहजीरा एवं काली मिरच मधु के साथ नित्य सेवन से गुदा की श्लेष्मकला का संकोच होकर गुदभ्रंश एवं अर्श में बहुत लाभ होता है।
  • कालीमिर्च के पाइपरीन नामक क्षार के ज्वरम्न गुण के कारण इसका उपयोग मलेरिया में क्वीनीन के साथ अधिक प्रभावकारी है।
  • कालीमिर्च को विसूचिका के प्रारम्भ में मरिच, अफीम तथा हींग तीनों समान मात्रा में लेकर २५० मि.ग्रा. की मात्रा में प्रत्येक २ या ४ घण्टे के बाद देने से लाभ होता है।
  • खाँसी में कालीमिर्च मधु पंचामृत शहद एवं घृत के साथ देने से लाभ होता है।
  • पुराने जुकाम में मारीच को गुड़ एवं दही के साथ सेवन करना चाहिये।
  • अधिक मात्रा में मरिच के सेवन से उदरशूल, वमन, बस्ति एवं मूत्र मार्ग प्रदाह, उदर्द आदि विकार उत्पन्न होते हैं।
  • बाह्य प्रयोग अनेक चर्म विकारों में एवं वायु के विकारों में किया जाता है।
  • कालीमिर्च से निकले सिद्ध तैल की मालिश आमवात, गठिया, अंगघात एवं कण्डू, पामा आदि में उपयोगी है।
  • घृत के साथ इसका लेप अर्श के मस्से पर करने से वाताशशूल एवं शिथिलता दूर होती है।
  • कालीमिर्च को फोड़े, फुन्सियों की आमावस्था में उनको बैठाने के लिए उन पर इसको पीसकर लगाया जाता है।
  • विषैले कीड़ों के काटने पर विनेगार (सिरका) के साथ कालीमिर्च को पीसकर लगाना चाहिये।
  • दही के साथ घिसकर कालीमिर्च के अञ्जन से अनेक नेत्र रोग जैसे रात्र्यंध, कण्डू आदि में लाभ होता है।
  • सिर को दद्रु या दाद के कारण यदि सिर के बाल झड़ गये हों तो इसे प्याज और नमक के साथ लगाने से लाभ होता है।
  • इसी प्रकार कालीमिर्च का लेप शिरःशूल में भी उपयोगी है।
  • कालीमिर्च के क्वाथ से कुल्ला करने से दंतशूल दूर होता है एवं बढ़ी हुई उपजिहा में भी लाभ होता है।

(कालीमिर्च का दंतमंजनों में भी व्यवहार होता है।

मात्रा- चूर्ण २५०-५०० मि.ग्रा.

  • सफेद कालीमिर्च/श्वेत मरिच–काली मरिच के समान ही गुण वाली लेकिन उससे कुछ हीन गुण होती है। इसका एक विशेष प्रयोग, श्लीपद में शोध के साथ बार-बार ज्वर के आक्रमण को रोकने के लिए किया जाता है।
  • बचनाग एक भाग और सफेदमरीच १५ भाग दूध में भिगोया जाता है। रोज दूध बदल दिया जाता है। इस प्रकार ३ दिन करने के बाद आदी के रस में घोंटकर १२५ मि.ग्रा. की गोली बनाई जाती है।
  • इसकी १ गोली दिन में ३ बार दी जाती है। शिध्रुवीज को आगे गुहूच्यादिवर्ग (श्लोक १०५) में श्वेतमरिद कहा है लेकिन वह प्रतिनिधि द्रव्य हो सकता है।

अथ त्रिकटुकनामलक्षणगुणानाह

विश्वोपकुल्या मरिचं त्रयं त्रिकटु कथ्यते।

कटुत्रिकं तु त्रिकटु त्र्यूषणं व्योष उच्यते ॥६२॥

त्र्यूषणं दीपनं हन्ति श्वासकासत्वगामयान् । गुल्ममेहकफस्थौल्यमेदःश्लीपदपीनसान् ॥६३॥

  • कालीमिर्च से निर्मित त्रिकटु के लक्षण, नाम तथा गुण-सोठ, पीपर तथा मरिच इन तीनों के योग को ‘त्रिकटु’ कहते हैं। कटुत्रिक, त्रिकटु, त्र्यूषण और व्योष ये संस्कृत नाम ‘त्रिकटु’ के है। त्रिकटु- अग्निदीपक होता है तथा श्वास, कास, चर्मसम्बन्धी रोग, गुल्म, मेह, कफ, स्थूलता, मेद, श्लीपद और पीनस इन सब रोगों को दूर करता है।
  • अथ पिप्पलीमूलस्य नामानि गुणाँश्चाह

ग्रन्थिकं पिप्पलीमूलमूषणं चटकाशिरः।

दीपनं पिप्पलीमूलं कटूष्णं पाचनं लघु ॥६४॥

रूक्षं पित्तकरं भेदि कफवातोदरापहम् । आनाहप्लीहगुल्मघ्नं कृमिश्वासक्षयापहम् ॥६५॥

  • पिपरामूल के नाम तथा गुण–प्रन्थिक, पिप्पलीमूल, ऊषण और चटकाशिर ये संस्कृत नाम ‘पिपरामूल’ के हैं। पिपरामूल-अग्निदीपक, कटुरस वाला, उष्णवीर्य, पाचक, लघु, रूक्ष, पित्तकारक, मल को भेदन करने वाला, कफ, वायु एवम् उदर सम्बन्धी रोगों को दूर करने वाला होता है तथा आनाह, प्लीहा, गुल्म, कृमि, श्वास और क्षय इन सब रोगों को नष्ट करने वाला होता है।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Talk to an Ayurvedic Expert!

Imbalances are unique to each person and require customised treatment plans to curb the issue from the root cause fully. Book your consultation - download our app now!

Learn all about Ayurvedic Lifestyle